Wednesday, October 16, 2013

मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था...

मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था
कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझ को
हवाओं में लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़ कर बिठा लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
कि आवाज़ देकर बुला लेगी मुझ को
मगर उसने रोका,
न उसने मनाया
न दामन ही पकड़ा
न मुझको बिठाया
न आवाज़ ही दी
न वापस बुलाया
मैं अहिस्ता अहिस्ता बढता ही आया
यहाँ तक कि उस से जुदा हो गया मैं
जुदा हो गया मैं , जुदा हो गया मैं...

कैफी आज़मी.


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