मैं रोज़गार के सिलसिले में
कभी-कभी उसके शहर जाता हूं तो
गुज़रता हूं उस गली से
वो नीम तारीक सी गली
और उसी के नुक्कड़ पे उंघता सा पुराना खम्बा
उसी के नीचे तमाम शब इंतज़ार करके
मैं छोड़ आया था शहर उसका
बहुत ही खस्ता सी रोशनी की छड़ी को टेके
वो खम्बा अब भी वहीं खड़ा है
फुतूर है ये मगर
मैं खम्बे के पास जा कर
नज़र बचाकर महल्ले वालों की
पूछ लेता हूं आज भी ये
वो मेरे जाने के बाद, आयी तो नहीं थी
वो आयी थी क्या?
-गुलज़ार
कभी-कभी उसके शहर जाता हूं तो
गुज़रता हूं उस गली से
वो नीम तारीक सी गली
और उसी के नुक्कड़ पे उंघता सा पुराना खम्बा
उसी के नीचे तमाम शब इंतज़ार करके
मैं छोड़ आया था शहर उसका
बहुत ही खस्ता सी रोशनी की छड़ी को टेके
वो खम्बा अब भी वहीं खड़ा है
फुतूर है ये मगर
मैं खम्बे के पास जा कर
नज़र बचाकर महल्ले वालों की
पूछ लेता हूं आज भी ये
वो मेरे जाने के बाद, आयी तो नहीं थी
वो आयी थी क्या?
-गुलज़ार
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