हम दिल-ए-मायूस को समझा बुझा कर रह गए
ज़िन्दगी के हर कदम पर मात खा कर रह गए
कौन सी नाकामियों का बोझ था दिल पर जो हम
खुल के हँसना था जहां बस मुस्कुरा कर रह गए
जो हमारी ज़िन्दगी के ख्वाब की ताबीर थे
वो फ़क़त दो चार दिन ख्वाबों में आ कर रह गए
प्यास बुझनी थी जहां अपनी छलकते जाम से
हम वहां दो चार कतरों से बुझा कर रह गए
जब किसी के संग-ए-दिल पे चोट करनी थी हमें
हम वहाँ भी दिल पे अपने चोट खा कर रह गए...
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