Friday, December 14, 2012

कुछ साये कुछ परछाईयाँ


कुछ साये कुछ परछाईयाँ
कुछ चाहत के सजदे
कुछ बहते बादलों में रखी उम्मीदें
बरसती रहीं तरसती रहीं
चाँद आसमान में जड़े सुराख की तरह झांकता रहा
और रात किसी अंधे कुँए की तरह मुह खोले हांफती रही
रास्ते पाँव तले से निकलते रहे
न रुके न थामे
न रोक न पूछा
ज़िंदगी किस तलाश में है
ज़िंदगी थकने लगी है
और ये ज़िंदगी का जुड़वाँ उसकी उँगली पकड़े
शहर की नंगी सड़कों पर
अभी तक कुछ बीन रहा है कुछ ढूंढ रहा है
                                              गुलज़ार.

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