कुछ साये कुछ परछाईयाँ
कुछ चाहत के सजदे
कुछ चाहत के सजदे
कुछ बहते बादलों में रखी उम्मीदें
बरसती रहीं तरसती रहीं
चाँद आसमान में जड़े सुराख की तरह झांकता रहा
और रात किसी अंधे कुँए की तरह मुह खोले हांफती रही
रास्ते पाँव तले से निकलते रहे
न रुके न थामे
न रोक न पूछा
ज़िंदगी किस तलाश में है
ज़िंदगी थकने लगी है
और ये ज़िंदगी का जुड़वाँ उसकी उँगली पकड़े
शहर की नंगी सड़कों पर
अभी तक कुछ बीन रहा है कुछ ढूंढ रहा है
गुलज़ार.
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